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गोठ बात

पुरखा मन के दूत होथे कउवा




चालीस-पचास बछर पाछू के बात आय। ममा गांव जावंव त पीतर पाख म ममा दाई ह बरा- सोहारी बनाय अउ तरोई के पाना म ओला रख के मोहाटी म मडा देवय। तहान ले जोर-जोर से कहाय- ‘कउंवा आबे हमर मोहाटी, कउंवा आबे हमर मोहाटी।’ ममा दाई के कहत देर नइ लागय अउ कांव-कांव करत अब्बड अकन कठउंवा  ह आवय अउ बरा-सोहरी ल  चोंच म दबा के उडा जावय। तब ममा दाई काहय – ‘कउंवा मन खाथे, तेला पुरखा मन पाथे।’ नानपन के ए बात ह अब सपना कस लागथे। काबर कि, अब पीतर पाख म कडउंवा नइ दिखय। सहर के दसा अउ खराब हे। सहरीया मन ह पीतर पाख म कउंवा मन ल अइसे खोजथें जानो-मानो नागमनि ल खोजथे।
पीतर पाख के आते साथ कउंवा के पूछा-परख ऐकर बर बाड जाथे कि कउंवा ल पुुरखा मन के दूत माने जाथे। जीयत ले जउन दाई-ददा ल मनखे फूटे आंखी देखन नइ भावय, उही सियान मन के मरनी के बाद पीतर पाख म उनला सुमीरत जल- तरपन अड बरा-सोहारी खवाय के करथें। अपन सुवारत म बूडे मनखे पीतर पाख म कउंवा के पाछू -पाछू दडउड्थे। मनखे के अइसन दोहरा चरितर ल कउंवा मन तको समझ गे हावंय। तेकरे सेती मनखे के तीर म वोमन नइ ओधंय। मनखे के अइसन दोहरा चरितर ले बने तो कउंवा के चरितर ल केहे गे हे। ‘मनखे जात तन ले तो बगुला भगत कस उज्जर-उज्जर दिखथे, फेर मन वोकर करिया होथे। फेर कउंवा के तन अड मन दूनों ले करिया होथे।’ साधु बन के भगत के पीठ म छुरी घोंपने वाला मनखे ले अच्छा कउंवा के चरितर आय। इही पाय के सियान मन कहे हावय – ‘तन उज्जर मन करिया ये बगुला के टेक, ऐकर ले तो कउंवा भला जउन भीतर-बाहिर एक।’




कउंवा अउ मनखे के रिस्ता बड जुन्ना आय। हमर पुरखा मन ह कउंवा के कतको किस्सा गडे हावंय। हमर पुरान अउ धरम गरन्थ म कउंवा के किस्सा ‘कॉकभुसंडि’ के नांव लिखाय हे। सुरदास जी तको ल किसन भगवान के दुलरवा चिरई बताय हावय। ‘कॉग के भाग बडे सजनी, हरी हाथ से लेगयो माखन रोटी।’ कउंवा के गिनती चिरई जगत म चतुर पंछी के रूप म होथे। वोहा रोटी-पीठा ल जरूरत ले जादा पा जाथे या फेर वोकर पेट ह भरे रहिथे तब वोहा रोटी-पीठा ल कोनो जघा लुका देथे अउ भूख के बेरा म वोला खाथे। कउंवा के ये सोच ह मनखे ल मुसीबत के बेरा बर चीज-बस ल बचा के राखे के सीख देथे। मनखे ल कउंवा मन चतुराई के संगे-संग आपसी भाई चारा ल बना के राखे के संदेसा तको देथे। काबर कि कोनो एक कउंवा के ऊपर मुसीबत आथे त कांव-कांव करत पचासों कउंवा झूम जथे। अउ, हमला करइया जीव ल अपन लोहा के खिला कस चोचकारी चोच म मार-मार के लहूलुहान कर देथें।
एक घाव जेला बइरी के रूप म कउंवा पहिचान लेथे तेला कभु भुलावय नइ। जेन जघा देखथे चोच मारे बर नई छोड़य। फेर, अइसन तेज सुभाव ल कोयली ह ठग देथे। कोयली अपन अंडा ल कउंवा के खोंदरा मन चुपे- चाप देथे। जेन ल कउंवा बिचारा अपन दूसर अंडा के संगे-संग ईमानदारी के साथ सेथे। अउ, अंडा ले निकले कोयली के केवची- केवची पखेरू मन ल पाल-पोस के बडे तको करथे।
मनखे समाज बर कउंवा के बडा महत्तम हावय। ऐहा अनाज के दुसमन जीव जइसे – कीरा-मकोरा, मुसवा ल मार के अनाज ल बचाथे। मरे जीव जन्तु ल खाके परयावरन ल साफ राखथे। फेर, बदलत बेरा म गांव-सहर म पेड के कटई, खेत- खलिहान म कीटनासक दवा के बाढत उपयोग ह कउंवा मन के काल बन गे हावय। कउंवा के नंदई मनखे बर करलई झन बन जाय तेय पाय के कउंवा ल काल के गाल म समाय ले बचाय के बेरा आगे हावय। थोर बहुत बाचे कउंवा मन बडे बिहनिया कांव- कांव करत ए बात ल चेतावत रहिथें।

विजय मिश्रा ‘अमित’
अग्रसेन नगर, रायपुर