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कविता

का होही?

बाढत नोनी के संसो म
ददा के नींद भगा जाथे।
कतको चतुरा रहिथे तेनो ह
रिश्ता-नत्ता म ठगा जाथे।

दू बीता के पेट म को जनी!!
कतेक बड दाहरा खना जाथे।
रात-दिन के कमई ह नी पूरय
जतेक रहिथे जम्मो समा जाथे।

दुब्बर बर दू असाढ करके
मालिक ल घलो मजा आथे।
लटपट-लटपट हमरे बर पूरथे
तउनो म रोज सगा आथे।

बइमान सब मउज करत हे
साव मनखे ह सजा पाथे।
आंखी मूंदके बैठे हे सब हंसा
तभे करिया कउंवा जघा पाथे।

रीझे यादव
टेंगनाबासा(छुरा)