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गज़ल

बलदाऊ राम साहू के छत्‍तीसगढ़ी गज़ल

1

झन कर हिसाब तैं, कौनो के पियार के ।
मया के लेन-देन नो हे बइपार के ।

मन के मंदिरवा मा लगे हे मूरत ह,
कर ले इबादत, राख तैं सँवार के ।

मन के बात ला, मन मा तैं राख झन,
बला लेते कहिथौं, तैं गोहार पार के।

दिन ह पहागे अउ होगे मुँधियार अब,
देख लेतेस तैं हर मोला निहार के।

‘बरस’ के कहना ल मान लेतेस गोई,
काबर तैं सोचथस कान हे दिवार के ।

2

तरकस ले निकल गे तीर,
कइसे धरन मन मा धीर।।

बड़े-बड़े पेड़ मन गिरगे,
फुसकू बनगे बड़का बीर।

कतको झन बड़ हाँसत हे,
आँखी म हमर हावै नीर।

सोझ कहइया नइ हे कौनो ,
भट गे जम्मो दास कबीर।

तिलक-त्रिपुंड अब लुका गे,
नाचत हावै पीर – फकीर।

‘बरस’ कहे धरम-जात के,
झन खीचों जी अब लकीर।

फुसकू= जिनकी हैसियत नहीं है, बड़= बहुत, सोझ =सीधा, भट गे = समाप्त हो गए, लुका गे= छुप गए।

3

देखत-देखत अब गाँव के बँधना हर छरियावत हे,
सुवा-ददरिया, करमा, रीलों जम्मो हर नँदावत हे।

किंजर-किंजर के गली-गली मा सेखी मारत टूरा मन,
गाँडा के बछवा कस किंजरत, कुला ल मटकावत हे।

खेत-खार के रूख कँटागे, चिरई खोंधरा दिखय नहीं,
कहाँ ले दिखही पड़की,मैना, नदिया घलो सुखावत हे।

तीज-तिहार के मया-पिरित, ना जाने कहाँ लुकागे,
गुरतुर बोली-भाखा हमर दिनों – दिन दूरिहावत हे।

बगरत हावै भ्रष्टाचार ह, अमर बेल के लाहा कस,
मुरुख मनखे बड़का बनके, गुनी ला समझावत हे।

सेखी= आत्म प्रशंसा, टूरा=लड़का, बछवा =बछड़ा/बैल, लुकागे=छुप गया, खोंधरा =घोंसला, लाहा=बेल,

बलदाऊ राम साहू