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कविता

डर

सोंचथौं,
कईसे होही वो बड़े-बड़े बिल्डिंग-बंगला,
वो चमचमावत गाड़ी,
वो कड़कड़ावत नोट,
जेखर खातिर,
हाथ-पैर मारत फिरथें सब दिन-रात,
मार देथें कोनों ला नइ ते खुद ला?
अरे!
वो बिल्डिंग तो आवे
ईंटा-पथरा के, कांछ के,
वो कार तो आवै लोहा-टीना के,
अउ
कागज के वो नोट, वो गड्डी आवै।
वो बिल्डिंग
आह! डर लगथे के खा जाही मोला,
वो कार,
डर लगथे,
वो जाही मोरे उपर सवार,
डर लगथे
पागल बना दिही मोला वो पइसा।
डर लगथे
निरजीव ईंटा-पथरा,
कांछ, लोहा-टीना,कागज के बीच घिर के,
निरलज्ज, निरजीव झन हो जाय मनखे।

केजवा राम साहू ‘तेजनाथ‘
बरदुली, पिपरिया, कबीरधाम
7999385846