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कविता

अलकरहा जाड़

अलकरहा जाड़ के भईया
होगे एंसो चढ़ाई हे।
बीच बतीसी कटकट माते
बीन हथियार लड़ाई हे।।

जाड़ खड़े-खड़े हांसत हे
कथरी बिचारी कांपत हे।
आगी भकुवाय परे हे
कमरा सेटर कांखत हे।।

करिया भुरुवा बादरा
रही रही मटमटावत हे।
रगरग ले ऊवईया घलो
सुरुज देव लजावत हे।।

खरसी भूंसा मा डोकरी दाई
गोरसी ला सिरजाये हे।
भाग जतीस जाड़ रोगहा
बारा उदिम लगाये हे ।।

गोरसी घेरे कुला जरोवत
टुरा अभी ले बईठेच हे।
बेरा चढ़गे होगे मंझनिया
फेर हाड़ागोड़ा अईंठेच हे।।

होवत बिहिनिया के उठई
संगी अब्बड़ बियापत हे।
करा परे हे खटिया-पटिया
तन-मन के नई खापत हे।।

रोज बिचारथे कोलिहा
बिहनिया घर बनाना हे।
घाम उजा बिहाव होजा
ए गीत नही अब गाना हे।।

भूरी दाई के अलकर हाड़ा
घन जाड़ मा पसहर झारत हे।
बारी के ढेखरा लईका डोकरा
सकेल पैरा भूर्री बारत हे ।।

बांध कनचपी बेंदरा टोपी
कनेर गोटारन खेलन दे।
जाड़ के चढ़े जवानी ला
खेले खेल मा झेलन दे ।।

दाई वो रोज का नहाहुं
अंगोछ पानी स्कूल जाहूं
चिरपोटी के लपेट चटनी
करा ठंढा भले बासी खाहूं।।

जाड़ के जोर मा संगी
अलकर होगे जिनगानी।
हवा भयंकर गुर्रावत हे
चाबेल दऊड़त हे पानी।।

हरियर खेत-खार मा
जुवानी नंगत छाये हे।
कोसो-कोस दुरिहा ले
फसल हमर ममहाये हे।।

खेत के भाजी पाला देख
भाग जथे गा कतको जाड़।
जुड़-सरदी बियापय नही
बरसथे खुशी के असाड़।।

बारा महीना के बारा रूप
अंजोर अंधियारी धुपछांव।
दुख कटे के बादे रे संगी
परही सुख के निर्मल पांव।।

कमलेश सवि ध्रुवे
राजनांदगांव
9752440882
mreeyansh1006savi@gmail.com
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