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कविता

कभू तो गुंगवाही

कईसे के बांधव मोर घर के फरिका,
जरगे मंहगाई नेता मन करथे बस बईठका I
कोनों दांत निपोरथे, कतको झिन खिसोरथे,
कुर्सी म बैठके कुर्सी भर ल तोड़थे I
अज्ररहा नेता कईके मंगतीन देथे गारी,
गोसैईया किथे इही मन ताय हमर बिपत के संगवारी I
तरुवा सुखागे मंहगाई के आगी म,
उपराहा होगे लेड़गा के गाँव म सियानी I
कोन जनी कोन ह बघवा असन ललकारही,
जम्मों पैहा मन जब कुकुर असन भागही I
गुंगवाही कभू तो ककरो चुल्हा के आगी,
तभेच मुड़ी धरके बईठही भ्रषटाचारी नेता अऊ बैपारी I

विजेंद्र वर्मा अनजान
नगरगाँव
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