Categories
कविता

खेती मोर जिंनगी

नांगर धर के चले नंगरिहा,
बइला गावय गाना।
ढोढिया,पीटपिटी नाचय कुदय,
मेचका छेड़य ताना।
रहि-रहि के मारे हे गरमी ह,
तन-मन मोरो जुड़ा जाही।
अब तो अइसे बरस रे बादर,
भूइयां के पियास बुझा जाही। ।

धान बोवागे बीजहा छीतागे,
कतका करिहंव तोर अगोरा ल।
उन्ना होगे आ के भर दे,
मोर धान के कटोरा ल।
गांव गली हो जाही उज्जर,
धरती घलो हरिया जाही।
अब तो अइसे बरस रे बादर,
भूइयां के पियास बुझा जाही। ।

तहुं तो थोरकुन तरस खा,
पथरागे मोर जांगर ह।
अब तो आ के थोरकुन बरस जा,
रिसागे मोर नांगर ह।
पउंर साल के बिगड़े खेती,
एसो साल अघा जाही।
अब तो अइसे बरस रे बादर,
भूइयां के पियास बुझा जाही। ।

– केशव पाल
मढ़ी (बंजारी) सारागांव,
रायपुर (छ.ग.)
9165973868