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व्यंग्य

जोड़ी! नवलखा हार बनवा दे

”मोर चेहरा के उदासी ह परोसी मेंर घलो नइ दोबईस। मोला अतक पन उदास कभू नई देखे रिहीस होही। परोसी ल मैं अपन समसिया ल गोहरायेंव त कहिथे ”अरे, ओखर बर तैं संसो करत हस जी?” पहिली ले काबर नई बतायेस, चल आजे चल न मैं तोला हजार पांच सौ म बढ़िया हार देवा देथंव। देवत रहिबे पईसा ल आगू-पाछू ले। फेर तोर गोसईन मेंर तोला नाटक करे बर परही।”

हासिय बियंग
बाल हठ तो जगत परसिध हई हे, फेर तिरिया हठ के आगू बड़े-बड़े तीसमारखां मनखे मन पानी भरथें। मोर सहीक ल कोन काहाय। ये घटना ल मैं पारा, मोहल्ला अऊ गांव भर म देखेंव अऊ समझेंव। त जानेंव कि तिरिया हठ के आगू सबो मनखे मन ल आत्मसमरपन करे बर परथेच। जीत तिरियाच मन के होथे। ओ समे के बात आय जब हमर देस के आरथिक दसा ह बिगड़ गेय रिहीस, त सरकार ह देस के सोन ल बिदेस म गाहना धरे रिहीस।
हमर घर टूरा के दाई ह जिद्द करिस कि मोला ओईसने सोनहा हार चाही, जइसे परोसिन ह पहिरे हे। मैं ओला मना-पथा डारेंव कि तैं अइसन हठ ल झन कर ओ। परोसिन ह जौन हार पहिरे हे तौन ह माहमूली हार नो हे ”नवलखाहार” काला कहिथे? ओ हार ह थोक बहुत म नई बनय। अऊ फेर आज काल सोन ल सरकार ह बिदेस भेजत हे, तेखर सेती बड़ मांहगी होगे हे। अइसन समें म बड़े-बड़े लखपति मन हिम्मत नई करत हें जेवर-जत्था बनवाय के अऊ फेर मैं तो एक मासटर आदमी आंव। चार महिना के तनखा म घलो नई बनवा सकहूं। चाऊर-दार, तेल-नून, कामा लेबो। खाबो काला? परोसी मन के बात आने हे। ओला तनखा के अलादे ऊपर ले लिफाफा मिलथे। हमर ओखर बरोबरी कइसे कर सकथन? ”कांहां राजा भोज-कांहां गंगु तेली कहिथें।” जम्मों माई लोगन मन के इही हाल ये। जिहां कांहीं नावां जीनिस देखिन कखरो घर, तहां बस ऊंखर बैमारी सुरू, जिद्दी करके पाछू पर जथें। जब तक ले ऊंखर फरमाइस ल पूरा नई करबे तब तकले घर के मनखे मन के खवई-सुतई हराम हो जथे। इसकूल ले आ के बइठे नई पांव, ओखर रमायेन सुरू हो जथे। मुंह ल कुहरा सहीक फुलो लेय रहिथे। न बने हांसे न गोठियाय। रोज दिन के ओखर नाटक ह मोर नाक म दम कर दिस। कहिथे- गाहना-गुठा पहिरे के इही तो दिन-बादर आय। जब जवानी म नई पहिराबे त का बुढ़ापा म पहिराबे? दुनिया का कही, या ये डोकरी के सऊंख ल तो देख याहा उम्मर म नांदिया बईला सहीक सम्हरे हे। बहू मन के सऊंख ल पूरा करना चाही। बुढ़ापा म जवानी के रंग चघावत हे। ओखर गोठ ह तो मोला सोरा आना लागिस। जवानी म सोरा सिंगार ह बने फभीत घलौ लागथे। जिनगी म उमंग आथे, फेर सोन के भाव ल सुन के पछिना निथर जथे।
ओखर अप्पढ़ होय के फायदा उठावत अभी हाल, बात ल टारे बर केहेंव- ”देख अभी तो सरकार ह सब सोन ला बिदेस म गाहना धर देय हे, जब छोंड़ा के आपिस ले लानही त भाव कमतिया जही उही बेखत ले के बनवा देहूं, कोन मार के अभी हमन बुढ़हागे हन तेन म। अभी सरी उम्मर बचे हे। ओह मोर बात ला मानगे।” कहिथे- ”बने काहात हस, आज ले हमन सोन लेय बर पईसा सकेलबो। सोन के आवत ले हार के पुरती सकला जही।”
एक दिन मैं इसकूल ले घर आयेंव अऊ खुरसी म बइठ के बुट ल निकारत रेहेंव त गोसईन ह धकर-लकर अपन हांत ल अंचरा म पोंछत मोर आगू म ठाढ़ होगे, अऊ बड़ खुस होवत कहिथे- हमर देस के सोन ल बिदेस भेजे रिहीस न सरकार ह, तौंन ल आपस मंगा डारीस। मैं सुनेव त मोर पोटा ह सक्क ले होगे, मोर चेहरा के रंग उड़ियागे।
गोसईन ह मोर मुंह ल देख के कहिथे- कइसे, दुख के समाचार ल गोठिया परेंव का?
मैं सम्हलत केहेंव, न….. ही…. ये तो बने बात ये जी, हमर चीज हमर देस म आगे मैं ओखर मन ल ढांढस बंधायेंव। हार कइसे लेवाही कहिके संसों म रात भर अलथी-कल्थी मार-मार के रहिगेंव। नींदे नई अईस। मंगसा मन के भनभनई अऊ कुकुर मन के हांव-हांव करई म बिहान होगे।
”मोर चेहरा के उदासी ह परोसी मेंर घलो नइ दोबईस। मोला अतक पन उदास कभू नई देखे रिहीस होही। परोसी ल मैं अपन समसिया ल गोहरायेंव त कहिथे ”अरे, ओखर बर तैं संसो करत हस जी?” पहिली ले काबर नई बतायेस, चल आजे चल न मैं तोला हजार पांच सौ म बढ़िया हार देवा देथंव। देवत रहिबे पईसा ल आगू पाछू ले। फिर तोर गोसईन मेंर तोला नाटक करे बर परही। कहि देबे मोर संगवारी मन उधारी म लेवईन हे कहिके।”
परोसी जइसने सीखोईस तइसने करेंव। गोसईन हार पहिर के बड़ खुस होईस अऊ कहिथे- अब महू किंदरहू बजार-हाट, मेला-मड़ई, परोसिन मन मोला बहुत चिढ़ाय हे। पहिर-पहिर के आगू-आगू म मटमटावंय। उही-उही गोठ ल घेरी-बेरी लानय लेगय, मोला जरोय बर। महूं अब बदला लेहूं त मोरजीव जुंडाही। मैं ओला चेतावत केहेंव- येला रोज-रोज झन पहिरबे, न पहिरे-पहिरे बाजार हाट, मेला-मड़ई जाबे। आज काल चोरहा मन पुदक के भाग जथें। कोनों बर बिहाव के मउका म भले पहिरे करबे। फेर लोगिन मन मानय त? तिरिया हठ के देखे तो भगवान हारे हे। ये दे पन्दरही बुलके नी पईस एक दिन बाजार म कते डाहार ले ओ चोरहा ह अईस अऊ गला के ला झटक के भाग गे। चोर-चोर काहतेच हे बजार म कांहा अछप होगे। रोवत-गात घर अईस। मैं सुनेंव त मोर मन थिरागे, चल सोन के झंझट ले मुक्ति मिलीस। अब कब्भू सोन पहिरे के नाव नई लेही कहिके। फेर दुसर दिन मोर खुसी म जोझा परगे पोसटमैन एक ठन लिफाफा दिस तेन म ओ नकली हार संग म एक ठन चिट्ठी मिलीस- लिखे राहाय सरम नई आवय, नकली सोना पहिराये रहे अपन बाई ल। गोसईन ह मोर कोती बर बड़ बिचित्र नजर ले देखत राहाय।
मैं सोचे लगेंव-मोला चुल्लू भर पानी म मर जाना चाही।

विट्ठल राम साहू ‘निश्छल’
मौंवहारी भाठा महासमुन्द