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छंद रोला

मजबूर मैं मजदूर

करहूँ का धन जोड़,मोर तो धन जाँगर ए।
गैंती रापा संग , मोर साथी नाँगर ए।
मोर गढ़े मीनार,देख लमरे बादर ला।
मिहीं धरे हौं नेंव,पूछ लेना हर घर ला।

भुँइयाँ ला मैं कोड़, ओगथँव पानी जी।
जाँगर रोजे पेर,धरा करथौं धानी जी।
बाँधे हवौं समुंद,कुँआ नदियाँ अउ नाला।
बूता ले दिन रात,हाथ उबके हे छाला।

सच मा हौं मजबूर,रोज महिनत कर करके।
बिगड़े हे तकदीर,ठिकाना नइ हे घर के।
थोरिक सुख आ जाय,बिधाता मोरो आँगन।
महूँ पेट भर खाँव, पड़े हावँव बस लाँघन।

घाम जाड़ आसाड़, कभू नइ सुरतावँव मैं।
करथों अड़बड़ काम,फेर फल नइ पावँव मैं।
हावय तन मा जान,छोड़हूँ महिनत कइसे।
धरम करम हे काम,पूजथँव देबी जइसे।

जुन्ना कपड़ा मोर,ढाँकथे करिया तन ला।
कभू जागही भाग,मनावत रहिथों मन ला।
रिहिस कटोरा हाथ, देख ओमा सोना हे।
भूख मरँव दिन रात,भाग मोरे रोना हे।

जीतेंद्र वर्मा”खैरझिटिया”
बालको(कोरबा)
9981441795