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व्यंग्य

हाथी बुले गांव – गांव, जेखर हाथी तेखर नाव

नाव कमाय के मन, नाव चलाय के संऊख अउ नाव छपाय के भूख सबो झन ल रथे । ये भूख हर कउनो ल कम कउनो ल जादा हो सकथे, फेर रथे जरूर । एक ठन निरगुनिया गीत सुने बर मिलथे – नाम अमर कर ले न संगी का राखे हे तन मं । कतकोन झन नाम अमर करे के चक्कर मं नाम नहि ते बदनाम कहिके गलत-सलत काम घला कर डारथें । अइसन मन पटंतर घला दें डारथे कि राम के नाव हावय तब रावन के घला नाव हावय । भले बदनाम मं हावय फेर नाम तो हावय । नाम कमाय के ये साधन कउनो जुग मं अच्छा नइ माने गे हावय ।

कतकोन झन अपन कुल-बंश के नाव चलाय के चक्कर मं बाबू पैदा होय के अगोरा मं नोनी मन के ओर लमा डारथे, परिवार ल बढ़ो डारथें । बाढ़े परिवार के खरचा-पानी नइ पुरोय सकंय । लोग-लइका मन ल सम्हाल नइ पावंय, एती-ओती हो जाथें । आंखी आंजत-आंजत कानी परगे केहे कस कुल -बंस मं कलंक लग जाथे । कउनो भी समय मं लोगन एक परिवार के तीन पीढ़ी ले जादा ल नइ जानंय चाहे ओ परिवार मं बाबुच-बाबू पैदा होवय चाहे नोनिच-नोनी । कतकोन झन बंस ल चलाय के लालच मं कन्या के हत्या कोखे भीतर ले कर डारथे । ये मन ल सोचना चाही कि नेहरू जी हर कन्याभ्रुन के हत्या करवा डारे रहितीस तब इंदिरा गांधी सही साहसी महान नारी हमर देस ल कहाँ मिलतीस । नेहरू जी के सिरिफ एक झन नोनी संतान होइस तेन हर अपन संगे – संग परिवार समाज अउ देस के नाम ल पूरा संसार में छाहित कर दीस अउ अम्मर होगे ।

बरतन – भड़वा मं अपन नाव लिखाना घला अपन नाव चलाय के एक ठन चलन आय फेर ये चलन हर अपन घर तक सिमित रहिथे अउ कुछ पीढ़ी तक चलथे तहां बरतन के संगे – संगे लिखाय नाव घला खिया जाथे । आजकाल नाव लिखाय के एक ठन छूतहा बिमारी छागे हावय । सरकारी निरमान सिरजन मन मं नाम लिखाय पथरा चटकाय के उदीम बाढ़गे हावय । सरकारी समाजिक पईसा मं एक ठन भांड़ी बनथे तउनो मं नाव लिखे पथरा लगाना जरूरी होगे हावय । भले ओ भांड़ी हर एक बरसाती पानी ल सहे झन सकय । भांड़ी के संगे – संग ओ नाव लिखाय पथरा के माटी-पानी, तीजनाहवन, दशनाहवन, तेरही अउ चहल्लुम घला हो जाथे । गांव नहिते सहर के कुछ कार्यक्रम मं मुख्य अतिथि अपन भासन के सुरू मं सुरता कर कर के अड़बड़ झन कार्यकरता के नाव ल संबोधन करथे । भासन मे कम धियान रथे उखर मन के नाव झन छुटय तेमा ओखर जादा धियान रथे । धोखा में जेखर नाव छुटगे तेन हर मुख्य अतिथि के सातो पूरखा मं पानी रितो देथे । कतकोन झन तो नाव के आगू – पाछू लेवइ मं घला बहुत बड़े बखेड़ा खड़े कर देथें । निमंत्रण पत्र मं नाव तरी ऊपर होय मं घलोक बड़े – बड़े कार्यक्रम र होवत देखे जा सकथे ।

पेपर मं अपन नाव छपाय के भूख घला लोगन ल बेचैन कर के रख दे हावय । ये किसम के भूखमर्रा मन सुत – उठ के राम के नाव नइ लेके पेपर मं अपन नाव छपे हावय कि नहि तेन ला पहली देखथे । मउका सरी जेन पेपर मं ओखर नाव नइ छपीस तहाँ देख ओखर ताव ल । पहली माथा ल पटकथे पेपर उपर – ये पेपर के कोई मतलब नइये, कोई खास समाचर देबे नइ करय, ये पेपर अच्छा नइये, घटिया पेपर आय । दूसर अपन चूंदी मुड़ी ल झर्राथे ओ पत्रकार ऊपर-ये पत्रकार ल लिखे के कोई तमीज नइये, बस जीये खाय बर पत्रकार बने हावय । ओखर पहिचान पत्र हर ओखर राशन कारड आय । ओखर नजर में बड़े – बड़े पद पईसा वाला लोगन मन दिखथें । जेन मन भारी भरकम विज्ञापन दे सकथें, हम गरीबहा मन उँखर नजर मं कहां दीखबो । तीसरइया माथा ल कचारथे मुख्यअतिथि ऊपर – हमर बनाय नेता, हमर बनाय माई पहुना (मुख्यअतिथि) । अपन नाव अउ फोटो ल चाकर- चाकर पेपर मं छपवाय हावय अउ जेखर परसादे नेता बने हावय, जेखर बदउलत ओला लालबत्ती, बंगाला-गाड़ी मिले हावय तेखर नाव लिखाय बर जानसून के भुलागे । ठीक हे आवन दे फेर चुनाव ल तब बताबो कि पेपर मं हमर नाव नइ छपे हे तेखर का रिजल्ट होथे तेला ।

येमा मुख्यअतिथि, पत्रकार अउ पेपर के कुछु गलती नइये । सवाल ये हावय कि कतेक हगरू – पदरू फुलचट्टा मन के नाव ल पेपर वाला हर छापत रइही । आजकाल तो भूसड़ी अउ कीरा-मकोरा सहीं अतेक हगरू-पदरू नेता पैदा होगे हावंय । इंखर नावे छापे मं पेपर भर जाही तब अउ बाकी समाचार ल का अपन थोथना मं छापही…..? भईया हो नाव अम्मर करना हे, नाव छपवाना हे तब काम अच्छा करव । जेखर काम सुन्दर ओखर नाव अम्मर, अउ नाव सुन्दर । कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, गुरूनानक, संत तुकाराम, संत रैदास, गुरू घासीदास इंखर जमाना मं कतकोन झन बड़े – बड़े राजा-राठी, जमीदार, मालगुजार अउ गौंटिया रिहीन होही फेर ओमन के काखरो नाव ल लोगन आज नइ जानय फेर ये कवि संत मन के नाव आज सब के जबान अउ कंठ मं बिराजे हावय । इंखर नाव अम्मर हावय । अपन नाव अम्मर करना है तब इंखरे रद्दा मं रेंगव । नाव कमाय अउ चलाय के चरदिनिया साधन मं झन भुलावव । एक बात तो बिल्कुल सिरतोन आय कि “हाथी बुले गांव – गांव, जेखर हाथी तेखर नाव” । हाथी ल धर  गली-गली रेंगइया बुलइया मन हर हाथी के मालिक नइ बन जाय । केहे के मतलब ये हावय कि अच्छा काम करिहौ तब नाव के मालिक तुंही रहिहौ , डोन्ट वरी ।

बन्धु राजेश्वर राव खरे
लक्ष्मण कुंज
अयोध्या नगर, महासमुन्द (छ.ग.)