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कहानी

हाय रे मोर मंगरोहन कहिनी – डॉ. सत्यभामा आड़िल

बीस बछर होगे ये बड़े सहर मं रहत, फेर नौकर-चाकर मिले के अतेक परेसानी कभु नई होईस। रईपुर ह रजधानी का बनिस, काम-बूता के कमती नई। भाव बढ़गे काम करईया मन के। घर के काम बर घलो कोनो नई मिलय। कहूं मिलगे एकाध झन, त सिर ऊपर करके, जबान लड़ाके बराबरी मं बात करथें। उड़िया बस्ती अब्बड़ होगे। रईपुर सहर ह उड़ीसा राज ले सीधा-साधा जुड़े हे। सड़क, रेल, जंगल सबो डहार ले उड़िया मनखे मन आथे अऊ जाथें। सीधा जगन्नाथ भगवान करा पहुंच जथें। उड़ीसा ले बेपारी मन अऊ काम खोजईया, बूता करईया मन आथें। आदमी जात रिक्सा चला, औरत जात घर-घर बरतन मांजथें। काम-बूता करे ले पईसा मिलथे। पईसा ले चाउर-दार आथे। चाउर-दार ले पेट भरथे। पेट भरे ले जिनगी चलथे ये बात ला खूब समझथें उड़िया मन। जल्दी-जल्दी काम सीखथें अऊ चलता-पुरजा बन जथें। मनखे के जरूरत ह ओला हुसियार बना देथे।
छत्तीसगढ़ के राजधानी ये रईपुर। चारों खूंट गांव। गांव के मन घलो बूता खोजे बर आथें। गांव मं किसानी काम करके सहर कोत आथें। का आदमी, का औरत, का लईका। अब तो पूरा परिवार आके बसत जाथें। कोनो डेरी में दूध अऊ गाय-गरुआ के काम करथें, अऊ सड़क बनई म घलो आदमी, औरत काम करथें। भाव बढ़गे। पहिली दू सौ रुपिया मं घर के काम करयं बरतन चौका, झाड़ू-पोंछा। अब पांच सौ रुपिया मं करथें। हमला ओ मन जवाब देथें, जानो-मानो हम ओखर करा काम मांगथन।
कहिथें, ”सुनव मांजी, तुंहर तनखा बाढ़थे, महंगई बाढ़थे। हमर तनखा कईसे नई बाढ़ही। तुंहर गरज हे त काम करावव, नई ते हम दूसर घर काम म लग जाबो। काम के कमती नइए बिल्डिंग बनत जाथे। मोरे करा बात करेके टईम नइए।” अऊ रेंगत बनथे कामवाली।
धन्न रे राजधानी। काली, सुखिया नांव के बाई अईस।
कहिस, ”एक हजार रुपिया महिना देबे त बता बूता करहूं। ए नोनी ल घलो संग मं लाने हंव। तुंहर गमला के फूल-पान मं पानी दे दिही। पाईप लगा देबे। तोर अटके-फटके छोटे-छोटे बूता कर दिही। जूता-चप्पल मं बरस मार देही, तुंहर सोफा मन ल झर्रा देही, धुर्रा माड़ जाथे न? मंय ह बड़े काम ल कर दुहूं। दूनों झन के बूता ल मिला के एक हजार रुपिया देबे।”
सुखिया ह गांव ले आए, फेर सहर के हवा लगे बाई लगिस। सोचेंव, जऊन आथे तऊन ह आठ सौ, बारा सौ अईसने मांगत रहिथें, चलव, इही ल लगा लेथंव सोच के केहेंव, ”ठीक हे, काली ले आ जबे सुखिया।” सुखिया हां कहिके चल दिस। रात के सोंचेव। ओखर संग आए नोनी करा, का-का काम कराहूं? अऊ सुखिया करा का-का काम कराहूं?
बिहनिया चाय-पानी होगे। बेटा मन कॉलेज चल दिन। साहेब घलो ऑफिस चल दिस। नौ बजे के बाद सुखिया नोनी संग अईस। बाहिर मं चप्पल उतारिन दूनों झन। मोर केहे के पहिलीच अंगना के कोंटा मं माड़े पाईप ल नल मं फिट करके नोनी ल धरईस अऊ कहिस-”जा, सब गमला मं पानी दे, झाड़-झरोखा ल बने नहवा, तहां ले अंगना ल धो, बांस बाहिरी म घर के पानी ल बहारबे अऊ खोर ल घलो बहारबे।” नोनी हव कहिके कूदत-नाचत पाईप लेके चल दिस।
सुखिया ह, बरतन ल बाहिर निकालिस अंगना मां पहिली पानी डार के भिगोईस। तहां ले मोर करा फूल बाहिरी मांगिस। ”कुरिया के ठन हे मांजी बता दे, कचरा कती फेंकहूं, इहू ल बता दे राह” कहिके चारों कुरिया बाहरिस। सुपली मं कचरा भर के एक ठन कचरा बाल्टी मं डारिस। बाल्टी ल तिरिया के मड़ईस। पोंछा लगईस सबो कुरिया मं। देखत रहेंव कोना-काना सबो ल पोंछिस। तहाँ ले बरतन मांजे बर बईठिस। साबुन म रगड़-रगड़ के बरतन मांजिस-धोईस। कनिहा ले पोलिथिन निकालिस, ओमा छेना के राख लाने रहाय, तवा अऊ कड़ाही ल घस-घस के मांजिस चकाचक बरतन दिखे ले लागिस। मोर मन खुश होगे।” दू कप चाय बनाएंव। काम-बूता खतम होगे। नोनी घलो अंगना-दुवार धो डरिस। बाहिर निकरके देखेंव। मन खुस होगे। जिनगी मं पहलिी बेर अईसन कामवाली पायेंव जऊन बिना टोका-टाकी के अपन घर जईसे काम करिस। दूनों झन बर दू कप चाय ढारेंव- ”सुखिया, नोनी आव चाय पी लव।” सुखिया
कहिथे, ”कचरा फेंक के आवथंव मांजी।”
ओतके मं नोनी ह चहुंके, हांसत-हांसत कहिथे-”दाई मंय तो कचरा घलो फेंक के आ गेंव। बाल्टी ल धो के मड़ादेंव।”
”सिरतोन?”
”हाँ” तारी बजाके नोनी हांसथे।
”हाय रे मोर मंगरोहन! आगू-आगू ले बूता करथस।” सुखिया ओला पोटार के चूमिस।
मंय अईसन मयारुक सुघ्घर संसार पहिली बेर देखेंव अऊ जानेंव। दूनो झन चाय पिईन। मंय पूछेंव, ”मंगरोहन” काला कईथें?” ”जऊन आगू-आगू काम ल निपटा देथे। बाधा ल भगाथे।” सुखिया मोला सुख देईस। मंय ओखर तनखा ला आज डेढ़ हजार कर देय हंव।- पांच बछर मं पांच सौ बढा देंव।

-डॉ. सत्यभामा आड़िल
शंकर नगर, रायपुर