Categories
कविता

माटी के काया

माटी के काया ल आखिर माटी म मिल जाना हे।
जिनगी के का भरोसा,कब सांस डोरी टूट जाना हे।
सांस चलत ले तोर मोर सब,जम्मो रिश्ता नाता हे।
यम के दुवारी म जीव ल अकेला चलते जाना हे।
धन दोगानी इंहे रही जही,मन ल बस भरमाना हे।
चार हांथ के कंचन काया ल आगी मे बर जाना हे।
समे राहत चेतव-समझव,फेर पाछू पछताना हे।
मोह-माया के छोड़के बंधना,हंसा ल उड जाना हे।
नाव अमर करले जग मे,तन ल नाश हो जाना हे।
सुग्घर करम कमाले बइहा,फेर हरि घर जाना हे।
रीझे यादव
टेंगनाबासा(छुरा)

2 replies on “माटी के काया”

अब्बड़ सुघ्घर

Comments are closed.