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व्यंग्य

व्यंग्य : ममा दाई के मुहुं म मोबाइल

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रात बेरा के बात आय। रइपुर ले जबलपुर बस म जावत रेहेंव। बारह बजे रहिस होही। बस म बइठे सबो यात्री फोये-फोये नाक बजावत सुतत रहीन। उही बेरा म मोर आघु सीट म बइठे डोकरी दाई के मोबाइल टीरिंग-टीरिंग बाजे लागिस।

मोर नींद ह टूट गीस। मे देखेंव डोकरी दाई ह झट ले मुहुं म मोबाइल ल दता के गोठियाय लगीस- ”हां बोल भांची। मेहर ममादाई बोलथो।” ममा दाई अउ भांची के गोठबात हर अबड़ बेर तक चलीस। जेमा एको ठिन जरूरी बात नई रहीस जेला रात के बारह बजे मोबाइल लगाके बोले बताय जाय। फेर काला बताबे जमाना तो मोबाइल के हे ना!
इही पाय के आज के जुग म कलजुग कहे ले अच्छा ‘मोबाइल जुग’ कहना आय। रेमटी-रेमटा, टूरी-टूरा, डोकरी-डोकरा सब के मुहुं म मोबाइल दताय हावयं। मोबाइल हर अब बड़हर मनखे के चिन्हारी बनगे हावयं। जेखर हाथ म मोबाइल नइ हे ओला अब कंगला मनखे समझे के दिन आगे हावय। इही पाय के बर बिहाव म अब अंगरी म मुंहरी पहिना के हांथ म मोबाइल धराय के रिवाज आगे हावयं।
पाछू महिना ममा गांव गेंव त मोबाइल के बाढ़त परताप ल देखे के एक ठिन अच्छा मउका मिलीस। ममादाई के गोड़ छू के पांव परेंव त ममादाई आसीरवाद देत बोलीस- ”जीयत रा बेटा। जीयत भर तोर मुहुं म महगां मोबाइल दताय रहाय। तोर दूनों हाथ म दू दी ठन मोबाइल धराय रहाय।” ममा दाई के आसीरबाद सुनके बक खा गेंव। मे सोचेंव ममादाई सही कहुं भगवान के दिमाक ह चल जही अउ भगवान हर मनखे ल दू हांथ, दू गोड़, दू आंखी, अऊ दू कान, संही दू ठिन मुंहु दे दिही। त दुनिया म भयानक मोबाइल करांति आ जही।
ममादाई के घर म सुतेंव। बिहनिया ममादाई के पूजा पाठ घंटी ल सुन के जाग गेंव। खटिया ले उठ के पूजा घर ले नहाकेंव त देखेंव की ममादाई मुहुं म मोबाईल दंताय-दंताय राम-राम जपत हावय। मोर आंखी फाट गीस। में ममादाई ल पुछ डारेंव- ”कस ओ हाथ म तुलसी माला धर के राम नाम जपे ल छोंड़ के मुहुं म मोबाइल दंता के राम-राम जपत हावस।” ममादाई मोर डाहर आंखी ल नटेर के बोलीस-”भांचा जी, जमाना बदल गे हावयं। भगवान कना मोर अरजी ल मोबाइल हर तुरंते पहुंचा दिही। अतको ल नइ समझ सकस।”
मोबाइल के बाढ़त महिमा ल सुनावत ममादाई मोला बोलिस- ”भांचा जी, जब तुलसी दास जी जनम लीस त ओकर मुहुं ले राम नाम निकले रिहीस हावयं। इही पाय के ओकर नाव ‘रामबोला’ रखे गे रहीस। अब के लइका जनमते साथ मोबाइल कहे लागे हावयं। इंकर नाव त ‘मोबाइल बोला’ रखना सही रही।” ममादाई के बात हर मोला सोला आना सच्ची लागीस।
संगवारी हो गांव-गांव म मोबाइल के जादू कइसे चलथ हावयं। तेकरो एक ठिन नमूना ल बतावत हाववं। ममादाई के गांव के इसकूली लइका मन हर रामलीला खेलत रिहीन। हनुमान जी सीता माता ल खोजे बर निकलत रिहीस इही सीन म हनुमान जी बने लइका हर रामजी ल बोलीस- ”प्रभु अपन कुछु चिन्हारी देदे। जेला देख के सीता माता मोर उपर बिसवास कर लिही।”
परभु राम बने लइका हर अपन मुन्दरी ल हनुमान जी ल देहे लागीस। तब हनुमान बने लइका बोलीस- ”नइ नइ परभु, मुंदरी ल नइ, तोर मोबाइल ल दे दे। काबर की मुंदरी के जमाना अब बीत गे। अब तो मोबाइल के जमाना आगे हावयं। तोर कसम परभु, माता-सीता हर तोर मोबाइल ल झटकुन पहिचान डारही।”
मोबाइल के बाढ़त चलन हर छत्तीसगढ़ राज के रीति-रिवाज, रहन-सहन ल तको बदल दे हावयं। इहां छत्तीसगढ़ी फिलीम के गाना म मोबाइल ल जोर-जोर के गाना बनत हावय। ये सब ल देखत गुनत अइसे लागथे कि अवइया बेरा म छत्तीसगढ़ी लोकगीत ल बदल के नवा ढंग से लिखना पड़ही। जइसे बिहाव के बेरा म बरतिया मन ल गारी देवत गांव के मोटियारीन मन हर गांही-
नरवा तीर के पटवा भाजी पटपट-पटपट करथे रे,
मोबाइल धरे बरतिया मन हर मटमट-मटमट करथे रे॥
गदबद-गदबद आइन बरतिया कोठा म ओलियाइन हो,
कोठा के दूरगासी चाबिस, मोबाइल धर खोजियाइन हो।
मोबाइल के आय ले साग-भाजी वाली मन के धंधा तको चमक गे हावयं। मोबाइल नइ रहीस त चार पांच मंजिला मकान म साग भाजी बेचे बर उतरत-चढ़त बिचारी भाजी वाली भौजी के कनीहा टूट जात रहीस। अब तो चार पांच मंजिला मकान तरी खडे होके सीधा मोबाइल म आर्डर ले लेथे। कतका-कतका भांटा, पताल, मिरचा, मुरई, रमकेलिया, कुंदरू, करेला चाही। फटाफट तउल के राख देथे। तंहाले चौथा मंजिल म रहवइया भौजी रस्सी बांध के झोला ल उतार देथे। जेमा भाजी वाली साग भाजी ल भर के ऊपर भेज देथे। मोबाइल के आय ले मेहनत मंजूरी कम करे ल परथे अउ भौजी के हाथ म कड़कत नोट खसखस ले भरागे हावय। ये सब ल देखत ताकत ये बात ल मानना परही कि मोबाइल म गुन बहुत हे सदा राखियों संग।

विजय मिश्रा ‘अमित’

One reply on “व्यंग्य : ममा दाई के मुहुं म मोबाइल”

बहुत अच्छा लागिस, आप मन बहुत अच्छा उदीम करे हव दिल खुश होगे

राम-राम,
जय जोहार
जय छत्तीसगढ़

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