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व्यंग्य

व्‍यंग्‍य : पनही





गुरूजी के पनही, ओकर पहिचान आय। नानुक रिहीस तब ओकर ददा, जे पनही ल पहिने, उही पनही ल गुरूजी घला पहिरथे। खियात ले पहिर डरीस, फेर वा रे पनही, टूटे के नाव नी लीस। येहा, खानदानी गुरूजी पनही आय, जेमा कभूच कभू नावा डोरी धराये बर परय। ओकर उप्पर भाग, हमेसा चकाचक रहय। ओमा कभू कन्हो पालीस नी रंगीस, मइलइस निही त, फरिया घला रेंगाये नी परीस। कतको झिन ओकर पनही ल देखे, सन्हंराय घला फेर, तरी के बदहाली दिख जाय म, बदले के सलाह घला देवय।
गुरूअईन घला, खियाय पनही ले बड़ चिढ़हय। इसकूल अऊ आपिस जाये के बेर, झनीच पहिर कहय। एक घांव घुस्सा के मारे, खोर म फटिक दीस। तीन दिन ले खोर म परे रिहीस। गराम सेवक के कुकुर जे दिन ले सूंघिस, गराम सेवक के रोटी खाये बर चुमुक ले बंद कर दीस। अतेक मोठ डांट कुकुर, गुरूजी कस होगे। तीन दिन पाछू को जनी , कोन ओकर दुआरी म, पनही ला फेर फटिक दीस। ये पनही ल बरोये के, गुरूअईन नावा उपाय करीस। एक दिन मनदीर ले वापसी म, हमर पनही नोहे कहिके, मनदीर के दरवाजा म छोड़वा दीस। उही दिन ले गुरूजी के गोड़ अनते तनते माढ़हे लागीस, का करबे, बिगन पनही के रेंगे के आदत नी रहय, नावा पनही बिसाये के नऊबत आगे।
पनही दुकान वाला पहिली बेर, गुरूजी ल अपन दुकान म देखीस, बड़ अचरज लागिस। पनही देखा कहितीस तेकर पहिली, तोला उधारी नी देवंव, कहि दीस। गुरूजी किहीस – पइसा धर के आहंव जी पनही बिसाये बर, त ओहा पुलीस कस अतका सवाल पूछीस के……जान दे। कभू पूछय, कतिहां ले पइसा अइस तोर कना ? कभू कहय, जुन्ना पनही ल उतारके फेंक दे हाबस का ? गुरूजी किथे – जुन्ना पनही ल नी फेकें हंव बाबू, का करबे गुरूअईन, मोर जुन्ना पनही ल, कनहो लेग जाय कहिके, मनदीर म छोंड़वा दीस, तेकरे सेती नावा बिसाये बर आये हंव, उधारी नी करंव गा नगदी देहूं, नगदी ……..। घेरी बेरी, नगदी के बात सुनीस, ततके बेर ले, गुरूजी हा, पनही बेंचइया के कका बनगे। कइसना पनही देखावंव कका ? मोर पनही ल देखेच होबे बेटा, उइसनेच देखा। दुकानदार किथे – उइसनेच पनही नी मिल सकय, फेर ओकर ले सुघ्घर अऊ सुख देवइया पनही देखावत हंव। छांट छांट के देखाये धरीस। फेर गुरूजी के दिमाक म जुन्ना पनही के चमक छाये रहय, नावा काला भाही। तभो ले मन मार के देखे लागीस। पनही बेचइया बतावत रहय – अइसन पनही ल एकेच महीना पहिली, बीडीओ साहेब लेगे रिहीस। पहिरीस तेकर पनदरही म, कार बिसा डरीस।




उपयनतरी ल, एदइसने पनही दे हंव, चार दिन म, जुन्ना टेलीबिजन बदलगे अऊ कमपूटर अऊ नावा बुलेट ले डरीस। पटवारी ल तो जानतेच होबे, उहू मोरे करा के पनही लेघथे, जब लेगथे, ओकर सुआरी, आधा तोरा सोन जरूर बिसाथे। तैं पहिली घांव मोर दुकान म, आये हाबस गुरूजी, पहिली आते ते तहूं ल, मोर पनही, मालामाल कर देतीस। गुरूजी जनम के सिधवा, अड़हा अऊ निच्चटेच मनखे ताय गा। साध लागगे वहू ल अइसन पनही के, जे मनखे ल, मनडल बना देथे। गुरूजी किथे – ओकर ले अऊ अच्छा देखा। दुकानदार किथे – ये पनही ला, सिरीफ देख सकत हस, बिसा नी सकस, तोर अवकात निये गुरूजी। अवकात सब्द सुनके, गुरूजी के हाथ नारी जुड़ागे। अपन अवकात टमरे लागिस गुरूजी। अवकात पुरतीन पनही हा उप्पर ले बड़ चमकत रहय, फेर पेंदा फटहा। गुरूजी किथे ….. अइसन चिरहा फटहा पेंदा के पनही तो मोरो तीर रिहीस …..थोकिन बने वाला ल नी देखातेव जी ? बाजू के दुकान म अपन छुरा टेंवत नऊ मारीस टप्पले – एक तो तोला तीन चार महीना म एक घांव तनखा मिलथे। उहू म बीओ आपिस के लार चुचवाथे। ले देके जे हाथ आथे, तेला नंग़ाये बर किराना वाला आपिस के आगू ठाढ़हे मिल जथे। ओला तोर ले जादा पता रिथे के, तोर तनखा कब आही। महीना के आखिरी उनतीस दिन, एक लांन्घन एक फरहर करके गुजरथे अऊ तेंहा महंगा पनही के सऊंक करथस गुरूजी ? ओकर गोठ गुरूजी ल जंचगे, इही ल बिसाये के सोंच डरीस। किम्मत पूछीस त, पनही बेंचइया किथे – ये पनही कुछ समे ले मोर दुकान के सोभा बढ़हावत रिहीस, येकर बर उचित मनखे के तलास पुरगे, एकर का किम्मत …..अइसने फोकट म लेगजा। या……. गुरूजी घला, इही दुकान के पनही पहिरे ला धर लीस कहिके, कनहो झिन जानय, तेकर सेती, पनही ल छाती म लुकाके ले आनीस। गुरूअईन ल सरपराइज देहूं सोंच, कलेचुप अंगना म मढ़हा दीस।