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व्यंग्य

बियंग: ये दुनिया की रस्म है, इसे मुहब्बत न समझ लेना

मेंहा सोंचव के तुलसीदास घला बिचित्र मनखे आय। उटपुटांग, “ भय बिनु होई न प्रीति “, लिख के निकलगे। कन्हो काकरो ले, डर्रा के, परेम करही गा तेमा …… ? लिखने वाला लिख दिस अऊ अमर घला होगे। मेहा बिसलेसन म लग गेंव।
सुसइटी म चऊंर बर, लइन लगे रहय। पछीना ले तरबतर मनखे मन, गरमी के मारे, तहल बितल होवत रहय। सुसइटी के सेल्समेन, खाये के बेरा होगे कहिके, सटर ला गिरावत रहय, तइसने म खक्खू भइया पहुंचगे। गिरत सटर अपने अपन उठगे, खक्खू भइया के चऊंर तऊलागे, पइसा घला नी दिस। सेल्समेन के चेहरा म, दरदीला मुसकान दिखत रहय। भइया ला सरबत घला पियइस। ओकर जाये के पाछू, दुकान के कूलर म टिप टिप ले पानी भराये के बावजूद, हावा गरम गरम फेंके लगिस। सेल्समेन के देंहे, पइसा के भरपाई हिसाबत, पछीना पछीना होगे। लइन म लगे मनखे मनले घला, बिरोध के कन्हो स्वर सुनई नी दिस बलकि, जम्मो झिन भइया ला हाथ जोर के, नमसकार तक करिन। ओकर जाये के पाछू, सेल्समेन ला, तैं बिगन लइन लगे कंन्हो ला रासन कइसे दे कहिके बखानिन ….. अऊ अइसन रासन लेगइया बर घला बुड़बुड़इन। यहू तिर, भय दिखीस, फेर पिरीत नी दिखीस।




मोर गांव के एक झिन मनखे, अतेक सुंदर लिखय के, जब ओकर रचना छ्पय, बिगन पढ़हे, ओकर संगवारी मन, बहुत सुंदर रचना, बधई हो, अइसे कहय। में सोंचेव, मोरो कभू कभार छपथे, बिया मन एको झिन कहींच नी कहय। पाछू पता चलिस के, ओकर जम्मो संगवारी मन ओकर ले डर्राथे अऊ उही डर के मारे, बहुत सुनदर रचना कहत, बधई पठो देथे। फेर मोला लागथे, येमा परेम कती तिर उपजिस होही ….. ? खैर, बात अइस गिस निपटगे।
लइका के जाति परमान पत्र बर, कतेक दिन होगे रहय, तहसील दफतर के चक्कर काटत। बाबू ते बाबू, अरदली तक ला खवा पिया डरे रहंव। एक दिन तमतमाके आपिस पहुंचेंव, बाबू साहेब ला खिसियाहूं सोंचेंव। अरदली मोला बाहिर म छेंक दिस। थोकिन बेर म एक झिन ननजतिया अइस, बिगन रोक छेंक, खुसरिस। आधा घंटा म, हाथों हाथ लइका के जाति परमान पत्र धरके निकल गिस। अरदली हा आये जाये के दुनो बेरा म नमसकार करिस, फेर थोकिन दुरिहइस तहन, फोकट राम कहिके, बखानिस। तुलसीदास जी के, भय बिनु होई न प्रीति, यहू तिर फेल होगे।




तुलसीदास के चौपाई गलत होही त, लोगन येला पढ़थेच काबर। मोर दिमाक चले लइक नी रहिगे काबर के, चुनई आगे। बड़े बड़े मइनसे मन, नान नान, चांटी फांफा चिरई चिरगुन कस मनखे मनले, अतेक परेम करे लगगे के, ओकर परेम गाड़ा म नी हमावत रहय। नानुक बइगा घर के छट्ठी, पहटिया घर के काठी, रेजा घर के बिहाव, मिसतिरी घर के कथा पूजा, बढ़ई घर के रमायन, चपरासी के लइका के जनम दिन, कोटवार घर के जवारा, कहींच नी छूटत रहय। इहां तक परेम उमड़गे रहय के, काकर घर काये होने वाला हे, जेमा जाके, परेम बांट सकन, तेकर तियारी एडवांस म होये लगगे। कोन ला काये बात के कमी हे अऊ काकर तिर काये बिपदा हे तेला दुरिहाये बर , एसी म रहवइया बपरा मन, गांव गांव, गली गली, जनगल जनगल, धूप छांव ला झेलत किंजरत रहय। ऊंकर परेम के गहरई म सागर उथला परगे। उदुपले अतेक परेम पाके, मनखे के सुकुरदुम हो जाना सुभाविक हे। इही बेरा म, तुलसीदास जी के चौपाई के अरथ मिलगे। में जान डरेंव तुलसीदास इही बेरा बर लिखे रिहीस होही। चुनई आगे, खुरसी बचाना हे या खुरसी पाना हे। खुरसी गंवाये के या खुरसी तक नी पहुंच सके के डर हा, बड़का मनखे मन के हिरदे म, अतेक परेम भर दिस के, तुलसीदास के चौपाई, अकछरसह सहीच होगे के, भय बिनु होई न प्रीति …….। छ्त्तीसागढ़िया का जानय अइसन फरेबी परेम ला। परेम देवइया अपन मतलब साध के, भेंट लागत, अपन बात कहत, धीरे से मसक दिस –
महफिल में गले मिल के, वो धीरे से कह गए।
ये दुनिया की रस्म है, इसे मुहब्बत न समझ लेना।

हरिशंकर गजानंद देवांगन
छुरा